शनिवार, 19 अप्रैल 2014

आख़िरी ख़त (लघुकथा)

शनिवार को मैंने तुम्हें एक ख़ास बात कहने के लिए ही कॉल किया था. मन-ही-मन कितना खुश थी मैं, कि जो बोलूँगी सुनकर तुम्हें भी बहुत अच्छा लगेगा और फिर अपने exams की तैयारी और बेहतर तरीके से कर सकोगे. पर अपनी रूचि की बात सुनी तुमनें और फिर तुरंत ही व्यस्तता का कहकर फोन रख दिया, जो कि मैं वाकई समझ सकती हूँ. बुरा तब लगता है, जब तुम कहने के बाद भी कॉल रिटर्न नहीं करते. क्या हो जाएगा, यदि किसी दिन ५ मिनिट देर से चले जाओगे तो ? रोज भी तो शाम तक ही जाते हो न ? आज तो वैसे भी जल्दी ही जाना होता है. खैर.....इंतज़ार का नतीज़ा वही निकला ! रात में बात हुई, तब भी तुमने नहीं पूछा..फिर मैंने ही बेशर्म होके याद दिलाया..और वहाँ न कह पाने की विवशता भी जाहिर की ! फिर मुझे सोमवार का इंतज़ार था, तुम्हें तब भी फ़र्क नहीं था, कि मैं क्या कहना चाहती थी, इसलिए जानना भी नहीं चाहा. हारकर मैंने फिर फोन लगाया, जो निरुत्तरित रहा..दोपहर तुमने बताया कि तुम ३ दिन के लिए बाहर हो, अचानक से प्रोग्राम बन गया था. खुशी हुई मुझे, कि अच्छा वक़्त बीतेगा तुम्हारा !

पर एक बात कहीं चुभ-सी भी गई, क्योंकि यही वो तय वक़्त था..जबकि मैंने तुमसे वहाँ आकर मिलना चाहा था और तुमने छुट्टी न मिल पाने की असमर्थता जाहिर की थी. बात इतनी सी ही होती, तो भी बर्दाश्त थी..पर जब तुमने अपने मित्र को यह कहा, कि तुझे महीने भर पहले ही तो बताया था..तो सच में बहुत-बहुत बुरा लगा.....'झूठ' ??? नफ़रत हुआ करती थी न, इससे तो तुम्हें..और आज मेरे से ही...क्यों ??? महीनों पहले से ही तुम्हारा मुझे टालना, दूरी बनाना देखती आ रही हूँ, रोज मरी हूँ, अब भी मर ही रही हूँ..और मेरी फूटी क़िस्मत ने अब परिस्थितियाँ भी कुछ ऐसी हीं बना दीं.....कि अपने ही घर में नज़रबंद हूँ ! पर मैंनें हिम्मत नहीं हारी, तुम तक पहुँचने की हर कोशिश की और तुम ऐसे हर इरादे पर पानी फेरते चले गये. गुरुवार को फ्रस्ट्रेशन में आकर मैंने फिर एक ग़लती की..जिससे तुम मुझे कभी देख ही ना सको..खुश रहो,  हमेशा के लिए..पर तुरंत ही मुझे इसका अहसास हुआ..कि फिर मैं भी तुम्हें नहीं देख सकूँगी..कैसे रहूंगी फिर !! और फिर मेरा एक कॉल तुम तक गया....खुशी हुई कि तुमने दोस्ती स्वीकार करी !

अचानक तभी ही तुम्हें, मेरी वो बात भी याद आई..और तुमने जानना चाहा, मैंने मना किया क्योंकि अब उस बात की उपयोगिता ही नहीं रह गई थी..खैर, तुमने कहा कि तुम सुनना चाहते हो..पर मेरे यह कहते ही कि "मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती" तुमने झट से फोन रख दिया, बाद मैं बात करते हैं, कहकर....वो बाद अब तक नहीं आया ! ये जानते हुए, कि अगले दिन छुट्टी है, तब भी तुमने घर जाते हुए मुझसे बात नहीं की, मैं रोती ही रही इधर....हाँ, उस दिन रात में तुम्हारी औपचारिक बात से मुझे अंदाज हो गया था, कि अब तुम्हारी दुनिया में मेरी जगह किसी और ने ले ली है ! क्योंकि तुमने तब भी नहीं बताया, कि मेरी बात पर तुम्हें क्या कहना है. लेकिन मेरी एक बात का यक़ीन ज़रूर करना कि मैंने तुम्हें कभी कुछ न भी  दिया हो पर तुम तक पहुँचने के लिए सब कुछ छोड़ा है...

मैं हमेशा से ही Giver रही हूँ, पर ऐसी तक़लीफ़ कभी नहीं हुई, पहली बार कुछ पाना चाहा था..ज़्यादा नहीं, बस थोड़ा ही ! ये अलग बात है, कि तुम्हें मेरा थोड़ा भी ज़्यादा लगा. यदि तुम्हारा झुकाव किसी की ओर बढ़ रहा है, तो कमी मेरे प्यार में ही रही होगी...पर इससे ज़्यादा करना या कहना मुझे आता ही नहीं. मैं तुम्हारे लायक भी नहीं, किसी के भी लायक नहीं..वरना इतनी उम्र बीत जाने पर भी कोई तो होता, जिसने मुझे चाहा होता..जो मेरे लिए यूँ ही व्याकुल होता, यूँ ही मुझसे मिलने को तड़पता..मैं सच में दिन में ख्वाब देखने लगी थी..दोष तुम्हारा नहीं, मेरी इन अधूरी आँखों का है.....पर अब कोई ग़म नहीं, वरना हमेशा यही सोचा करती थी कि मुझे कुछ हो गया, तो कैसे रहोगे तुम, कौन ख्याल रखेगा, कौन बेवजह समझाएगा..कि अपने खाने-पीने का ध्यान रखना, टाइम टेबल फॉलो करना, exercise करना, पढ़ने को भी वक़्त निकालो, पीठ-दर्द का इलाज कराओ, acidity की प्राब्लम बार-बार क्यूँ हो रही है..अच्छे डॉक्टर को दिखाओ.......पर अब मरी तो इस तरह की फ़िक्र न हो शायद..'शायद' इसलिए क्योंकि मुझे खुद मेरा भरोसा नहीं रहा, हो सकता है कभी ना सुधर सकूँ.......पर जहाँ हो, जैसे हो, जिसके साथ हो..स्वतंत्र हो तुम ! मैं अब तुम्हारा पीछा नहीं करूँगी, मुश्किल है, लगभग नामुमकिन सा ही.....तुमने कहा भी था एक बार कि 'उम्र ज़्यादा होने से समझदारी ज़्यादा नहीं आ जाती' सच है, मैं अब समझदार होना भी नहीं चाहती........पर उस दिन जब तुमने ही कह दिया....."पहले भी जी रही थी ना" सो जी ही लूँगी..अच्छी रहूं या बुरी...अब तो बस मेरा 'होना' ही काफ़ी है......!

तुम्हारी भी नहीं कह सकती...ये हक़ तो अब तुमने......लेकिन 'मैं' आज भी 'तुम्हारी' हूँ......रहूंगी, जब मिलो तो 'जान' कहकर ही पुकारना..जीवित होने का एक वही अहसास आज भी सलामत है, इस शब्द से जुड़ा हुआ...

सिर्फ़ सौदामिनी

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