रविवार, 3 जनवरी 2016

साँसों की पतवार

अहमियत 'साथ' की उतनी नहीं होती जितनी कि साथ होने के अहसास की होती है! 'मैं हूँ न' की आश्वस्ति से अधिक किसी को कुछ नहीं चाहिए होता.....क्या ये इतना मुश्किल है ????  
पर सवाल ये है कि  साँसों की पतवार को खेते रहने के लिए उम्मीद के सागर की तलाश क्यों है? वही क्यों चाहिये, जिसे आपकी जरुरत नहीं! खुद को परखा है कभी? अपने पीछे भागनेवालों को मन वितृष्णा से क्यों देखने लगता है? क्या फ़र्क़ है, उनमें और तुममें! सबको तलाश है किसी और की, जो सामने है उपलब्ध है, उस पर नज़र जाती ही नहीं और असंभव को पाने की जद्दोज़हद में ज़िन्दगी फिसलती जाती है!

मन खुद ही टूटता है, बिखरता है और तिनका-तिनका हो हवाओं में विलीन हो जाता है कहीं! ये भी मन ही है जो बोझिल हाथों से खुद को समेट फिर उठ खड़ा होता है! बार-बार लड़खड़ाना, चोट खाना, एक सहारे के लिए गिड़गिड़ाना और फिर खिसियाकर खुद ही उठ जाना.... ये नियति भी तो मन की स्वयं की ही चुनी है. क्यों नहीं, ये हर बार एक ही झटके में मजबूती से उठ खड़ा होता है, कभी न गिरने के लिए. आत्मसम्मान को बेचकर, उम्र भर का अहसान लेते हुए, भिक्षा-पात्र में गिरता रिश्ता कब तक टिक सकता है? भिक्षुक कभी सम्मान के पात्र हुए हैं भला? एक टूटी आस, खुद से ज्यादा इंसान को तोड़ देती है. उम्मीद नहीं, ख्वाब नहीं , उन्हें पूरा करने की ज़द्दोजहद भी नहीं.... …पर फिर भी जीवन बाकी है. सामने नीला खुला आकाश बाहें फैलाये खड़ा रोज दिखता है और याद आता है एक दिन उसने पूछा था....."कितना प्यार करती हो मुझे?" और मैंने हंसकर कहा था "आसमान से भी ज्यादा". उसे इस बात पर कभी यकीं न हुआ था और मुझे तो वो आसमान भी कम जान पड़ा था. पर आज जब उस ओर देखती हूँ , तो लगने लगता है कि उसे भी आश्चर्य नहीं हुआ था तब, शायद कम ही लगा होगा ये पैमाना! तभी तो कितनी बार इस पैमाने की खिल्ली उड़ाते हुए चला जाता था और मैं खिसियाती हुई अपने को ही दोष देने लगती थी.  आज मेघों का गर्जन मुझे मखौल बनाता लगता है, बारिश की बूँदें तेज़ाब सा गिरकर मेरे चेहरे का  रंग उड़ा देती हैं. मैं जान गई हूँ, ये आसमाँ मेरा न था! मेरे हिस्से की जमीं भी अपनी न रही... जिसके लिए मैंने अपनी हर चीज़ दाँव पर लगा दी, वो मुझे ही गुनहगार ठहरा गया. आज मेरा हर भ्रम चकनाचूर है और उससे जुड़ा हर घमंड भी. फ़िज़ूल था वो यक़ीन कि कोई मेरा भी हो सकता है. अधूरे इंसान का कौन, कब, कहाँ हुआ है? सदियों से उसका मजाक ही बनाया जाता रहा है. अधर में हूँ , पर शिक़ायत नहीं कोई! क्योंकि उसे मेरा यही होना मंज़ूर है!

'सौदामिनी, जीवन के आखिरी पन्नों से' का एक अंश 

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