शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

ताज्जुब नहीं!

"12 -14 वर्ष की लड़कियों के साथ सबसे ज्यादा बलात्कार होता है, आपको मौका मिले आप भी नहीं छोड़ेंगे" - पप्पू यादव 
जब तक इन महानुभाव जैसे लोग सत्ता में रहेंगे, 'स्त्री-अस्मिता' मजाक ही रहेगी इसके बाद उपदेश भी दे डालते हैं, "सिस्टम को बदलिये" 
साहेब, जनता की मति मारी गई थी जो सिस्टम बदलने को आप जैसों को चुन लिया! (बहुवचन का प्रयोग इसलिए कि इन जैसे सैकड़ों लोग हमारे ही बीचोंबीच घूम रहे हैं)
यानी इन्होने ये तो स्वीकार ही लिया कि इनके यहाँ इस मौके का खूब फायदा उठाया जाता है।

ताज्जुब इस बात का बिलकुल नहीं कि इतनी कुत्सित मानसिकता वाले वक्तव्य के बाद भी ये निर्लज़्ज़ की तरह हंस क्यों रहे हैं?
ताज़्ज़ुब ये भी नहीं कि वहाँ उपस्थित लोगों ने इनका विरोध कर इन्हें तभी धराशायी क्यों नहीं कर दिया?
ताज्जुब तब भी नहीं होगा, जब इन जैसे और लोग चुने जाते रहेंगे!
हाँ, ताज़्ज़ुब तब भी नहीं होगा जब इस वीडियो को देख ज्यादातर लोग चुप्पी धारण कर अगली पोस्ट के लाइक की ओर बढ़ जाएंगे।
ताज़्ज़ुब तब होता है जब लोग देश में बदलाव की उम्मीद कर, अपने घर का कचरा पडोसी के घर की तरफ उछाल देते हैं।
ताज्जुब तब होता है जब एक स्त्री के भाषण की धज्जियाँ उड़ाने में व्यस्त लोग, गैंगरेप की घटनाओं का ज़िक्र तक करना भूल जाते हैं। यहाँ इनके लिए किसी समस्या के समाधान से ज्यादा जरुरी किसी का मजाक उड़ाना है। 
ताज्जुब तब भी होता है जब दुःख भरी कविताएँ और घड़ियाली आँसू लिए डरपोक चेहरों को सर झुकाये देखती हूँ, जो सिर्फ अपनी बारी की प्रतीक्षा तक मौन हैं.....!
पर जानती हूँ, संवेदनाएं मरी नहीं....ऊँघ रही हैं कहीं, उनकी नींद में खलल होगा तो जागृत भी अवश्य हो जाएँगी। इन्हें दवा नहीं, दुआ की ही जरुरत है अब!

दुःख है कि अब अपराधी और नेता के बीच का दायरा सिमट रहा है और संभवत: इन्हें सह-अस्तित्व की तलाश है। 
डर इस बात का है, कहीं समाज का प्रबुद्ध वर्ग, इन सबसे आँखें चुराकर, स्वार्थ लिप्तता या मृत्यु भय से एक संज्ञा शून्य, भाव विहीन समाज की स्थापना में योगदान तो नहीं दे रहा?? फिर परिवर्तन की आस किससे और क्यों???
ख़ैर...ताज्जुब अब भी नहीं है!
प्रीति 'अज्ञात'
https://www.facebook.com/rakesh.k.singh.52/videos/10153462784717602/

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

रेलगाड़ी -रेलगाड़ी

सुना है रेल बजट आ रहा है, पूरा यक़ीन है कि रेल से जुडी यह एकमात्र बात है जो अपने निर्धारित समय पर होती है। बाकी जो है, सो हम और आप जानते ही हैं :)
जितनी नफरत हमें हवाई जहाज और बस के सफर से है उससे दस गुना ज्यादा ख़ुशी रेलयात्रा में मिलती है। इसीलिए इससे सम्बंधित कोई भी चर्चा होते ही, हमारे भीतर का जागरूक नागरिक और भी जागृत हो उठता है। राजनीति में दिमाग लगता नहीं, इसलिए पता ही नहीं चलता कि बजट बनना शुरू कब होता है? खैर...अब बन गया तो बन गया। हमारी कुछ बातें हैं, सुझाव भी हैं जो अगर उसमें शामिल न हों, तो कृपया विचार किया जाए। इससे सिर्फ हमारा ही नहीं देश का भी भला होगा। Now come to the point -

1. सबसे पहली और मुख्य बात, ये waiting list का फंडा ही ख़त्म कीजिये। टिकट या तो कन्फर्म रहे या नहीं रहे। इससे जो चिंता और समझदारी के मारे, ज्ञानी लोग कई ट्रेन में टिकट्स करा लेते हैं और उसके बाद भी अधर में लटके रहते हैं, उनकी ज़िन्दगी में कुछ साँसें और जुड़ जाएंगी। हम जैसे लोग ये दुआ ही करते रह जाते हैं, "हाय, अल्लाह! जा पाएंगे भी या नहीं!" :/ साथ ही ये बहाना भी ख़त्म हो जाएगा कि "क्या करें, पैकिंग तक हो गई थी पर मुई टिकट कन्फर्म न हुई।" बोले तो, सच्चाई में इज़ाफ़ा होगा। जिसकी आज देश को सख़्त जरुरत है। 

2. सिर्फ महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर ही जोर न दें, पुरुष भी मार्शल आर्ट का कोर्स करके सफर नहीं करते हैं। सभी aisle और gate के पास कैमरा लगवाये जाएं और ट्रेन में एक कंट्रोल रूम हो, जहाँ से सब पर नजर रखी जा सके। पर्याप्त महिला, पुरुष गार्ड भी हों।
इससे न केवल सुरक्षा ही होगी बल्कि गंदगी फैलाने वाले लोग भी पकडे जा सकेंगे। उन पर तुरंत ही डबल किराया का fine हो. मात्र समझाने से सुधरते तो डिब्बों की ये दुर्गति न होती! सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी आम जनता ही करती है और इसके लिए सफाईकर्मियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। 

3. यह नियम बनाया जाए कि यदि कोई परिवार के साथ यात्रा कर रहा हो, तो उसे एक साथ सीट मिले। या कम-से-कम एक lower birth का वरदान तो मिले ही! और हाँ, upper birth पर चढ़ने के लिए थोड़ा आसान मार्ग बनाइये न! कितनी बार हवा में ही झूलते रह जाते हैं, कि फलाना-ढिमका निकल जाए तो चढ़ूँ! तकलीफ होती है, साब! :O

4. चाय वाले भैया को बोलिए कि same चाय बार-बार गरम करके न पिलाये वरना उसका लाइसेंस रद्द हो जाएगा! यलो वाले पानी में दाल के दाने होने चाहिए और रोटी, परांठों की thickness पिज़्ज़ा जैसी न हो pleeeeease! पनीर का तो आपको पता ही है।

5. एक अत्यधिक आवश्यक बात, जो यात्री इतना लगेज लाते हैं कि मानों घर shift कर रहे हों! उनसे अतिरिक्त charge लिया जाए और वो भी इस अनुरोध के साथ कि जो गरीब बेचारा बस एक ही बैग  लाया है, उसे वो बिना लड़ाई किये रखने देंगे। आपको क्या पता, एक बार हमने अपना बैग गोदी में रखकर यात्रा की है। दुष्ट लोग हमें ऐसे देख रहे थे, जैसे वो तो सरकार की परमीशन लेके बैठे और हम बिना टिकट! ये अन्याय हुआ न। :( 

5. अब आखिरी और सबसे मुश्किल बात, वो ये कि सर/मैडम जी कुछ ऐसा कीजिये कि अपनी ट्रेन जो है न, वो जरा टाइम पर पहुंचे। इससे यात्रियों को तो आराम होगा ही, अपना प्लेटफार्म जो 'कुम्भ मेले' में तब्दील हो जाता है, वो भी नहीं होगा जी। सब टाइम पर अपनी ट्रेन में जायेंगे तो भीड़ काहे होगी? कोई पिकनिक मनाने तो उधर जाता नहीं न!
जो ये काम दुष्कर लगे तो अइसन करो कि देरी होने पर यात्रियों के जलपान और आराम की व्यवस्था करवा दीजिये और भी ज्यादा देरी हो तो... हे-हे अगली ट्रेन का किराया भी सरकार आपही को देना होगा। :P

6. भीड़ तो कम होने से रही, तो जो गेट पर लटके लोग हैं उन्हें रस्से से बंधवा दीजिये। गिर जाते हैं तो उन्हें बड़ी चोट लगती है। या फिर उनके गले में ये तख्तियाँ कि "हमें अपनी जान प्यारी नहीं, इसलिए आज ये try मार रहे।" :( 

फिलहाल इतना ही। कुछ मुद्दों की ओर पिछले वर्ष ध्यान आकर्षित किया था, कृपया उन्हें भी दोहरा लें -  
* छोटे स्टेशनों पर रेल के रुकने का समय बढ़ाया जाए. कई बार सामान और यात्री में से कोई एक ही उतर / चढ़. पाता है. उसके बाद का तमाशा तो सबको पता है.
* पान, गुटका, तंबाकू और इस तरह के अन्य पदार्थों के क्रय-विक्रय पर सख़्त पाबंदी हो. ट्रेन क्या ९० % देश साफ हो जाएगा, जी ! यूँ भी ये धीमे जहर ही हैं.
* चादर, कंबल डिस्पोज़ेबल हों और हो सके तो तकिये के अंदर रखा पत्थर भी हटा दिया जाए. 
* ये आख़िरी वाले के लिए तो करबद्ध प्रार्थना है, कि हर स्टेशन पर होने वाली उद्घोषणा को सुनाने वाले यंत्रों की मरम्मत कराई जाए. क्योंकि 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें'.........के बाद भले ही हम कितना भी ध्यान दें, श्रोणि-यंत्र भी लगवा लें...पर क्या मज़ाल है जो एक शब्द भी समझ में आ जाए !
शेष शुभ! :) 
© 2016 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

सलाम, नीरजा!

एक समय था जब मैं बहुत फ़िल्में देखती थी। अच्छी फिल्मों के शानदार सीन दिलो-दिमाग पर अगली अच्छी फिल्म देख लेने तक छाए रहते थे। किसी के गीत, गुनगुनाने लायक तो किसी का कोई डायलॉग सर पर सवार रहता था। एक्शन और हॉरर फिल्मों से हमेशा परहेज किया है मैनें। मैं सरदर्द लेने या भयभीत होने के लिए थिएटर में नहीं जाती।:P 
कुछ ऐसी फ़िल्में भी होती हैं, जिनका असर वर्षों रहता है। मेरे ख्याल से रियलिस्टिक सिनेमा में यह बात होती ही है।

उन दिनों जब दूरदर्शन ही अकेला दर्शन देता था, एक मूवी आई थी उस पर 'एक रुका हुआ फैसला'...आज भी याद करती हूँ तो बस एक ही शब्द दिमाग में गूंजता है,'वाह!' यह पंकज कपूर जी के फैन होने की शुरुआत थी। उसके बाद सारांश, डैडी ने ऐसा जादुई असर छोड़ा कि वो अनुपम खेर द्वारा अभिनीत, बेटे की अस्थियों के लिए टूटकर रोने वाला मार्मिक दृश्य हो या कि 'आईना मुझसे मेरी पहली-सी सूरत मांगे......!' गीत के समय दी गई स्पीच, आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। भारतीय फिल्म उद्योग ने हमको ऐसी सैकड़ों फ़िल्में और कलाकार दिए हैं, जिनके नाम हम सदियों गर्व के साथ लेते रहेंगे। खैर..ये चर्चा फिर कभी!

समय के साथ फ़िल्में देखना कब छूट गया, पता ही न चला। ज़िन्दगी की बदलती तस्वीरों के साथ वक़्त बहता रहा। पर इधर बीते दो-तीन वर्षों में मैरी कॉम, कहानी, मांझी देखने के बाद महसूस हुआ कि अच्छी फिल्मों को न देखना मेरी सबसे बड़ी बेवकूफी रही। कितना कुछ सिखा जाती हैं ये फ़िल्में हमें। एक अलग-सी संतुष्टि भी मिलती है इनसे।

'नीरजा' की बातें और उसकी बहादुरी के किस्से बचपन की गलियों से होकर गुजरे हैं। उन दिनों की बहुत-सी बातें, अखबारों की सुर्खियां जेहन में अब भी ताजा हैं। आज जब इस फिल्म को देखने का मन बनाया तो अंदाज नहीं था कि थिएटर को सुबकियों में इस क़दर डूबा पाऊँगी। सुबह के शो में अलबत्ता तो दर्शक होते ही नहीं या फिर सात-आठ चेहरे ही नजर आते हैं। आज पचास से अधिक जोड़ी नम आँखें थीं और एक मिनी थिएटर में इस वक़्त, इतने लोगों को देख काफी तसल्ली मिली।

ओह्ह. नीरजा! तुम सामने होतीं तो आज तुम्हें गले लगा लेती। कितना रुलाया है तुमने यार! मेरा दिल रो रहा, उस माँ के लिए जिसके शब्दों में तुम्हारे लिए कितना गर्व था! मुझे भी है, बेहद गर्व है तुम पर! शबाना आज़मी जी ने ये क़िरदार बखूबी निभाया है, सोनम कपूर का कार्य भी सराहनीय रहा!
लेकिन वही अफ़सोस, वही शिकायत उस अदृश्य शक्ति से कि अच्छे लोगों को चैन से जीने क्यों नहीं देता?? दुनिया जहान के दर्द, तकलीफें उनके हिस्से ही क्यों?? तुम्हारी शहादत को सलाम नीरजा!
काश, अपने ही देश को आग में फूंकते लोग तुम-सा सोच भी पाते तो इंसान कहलाते!
-  © 2016  प्रीति 'अज्ञात'