मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

बात निकलेगी, तो फिर दूर तलक़ जायेगी....!


'वंदना करते हैं हम'..... बचपन में रेडियो ceylon पर बजते इस भक्ति-गीत और हमारी आँख खुलने का बड़ा गहरा रिश्ता रहा है। 
सच कहूँ तो मैंने इसे कभी भी बैठकर तन्मयता से नहीं सुना होगा और न ही इसके lyrics याद हैं लेकिन फिर भी हमारी सुबह में यह गीत इस तरह घुल-मिल गया था कि जैसे दिनचर्या का एक हिस्सा हो बिल्कुल बिनाका( बाद में सिबाका) गीतमाला की तरह! इन दोनों में अंतर इतना ही था कि अमीन सयानी और गानों के चढ़ते-उतरते पायदानों की ख़ूब चर्चा होती। पहले पायदान के गीत के लिए बेफ़िज़ूल शर्तें लगतीं और प्रथम पायदान तक पहुँचते-पहुँचते साँसें यूँ अटक जातीं जैसे कि बोर्ड परीक्षा का रिजल्ट निकलने वाला हो! उधर 'वंदना करते...!' पर चर्चा कभी नहीं हुई लेकिन इसकी ख़ुश्बू हम सबकी रूह में तब से अब तक बसी हुई है। बिनाका से जो प्रगाढ़ रिश्ता था, वही रिश्ता इस ख़ूबसूरत और पवित्र सुबह से भी जुड़ गया था। कुछ बातें साथ चलती हैं, हवाओं की तरह! होती तो हैं, बस बयां नहीं की जातीं!

समय के साथ जैसे-जैसे देश का विकास  होता गया, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और उसी दर से व्यस्तता और जिम्मेदारियाँ भी। इस सब में रेडियो बहुत पीछे छूट गया। इतना कि मुझे याद भी नहीं कि आख़िरी बार ये दोनों कब सुने थे! परन्तु इतना जरूर याद है कि न तो मेरी किसी सुबह को इससे अड़चन हुई थी और न ही परीक्षा वाली कोई रात को। सब सुचारु रूप से चलता था। कहीं कुछ भी forced नहीं लगता था। हालाँकि रेडियो में तो यूँ भी ऑन/ऑफ़ अपने हाथ में होता है। हमारे घर में मरफी का ट्रांज़िस्टर था, जो एक चपत खाते ही सिग्नल कैच कर लेता था! कई बार अलग-अलग एंगल में भी रखकर शगुन करते थे कि अब सही बजेगा!

ख़ैर, फिर टीवी आया और उसके बाद सा-रे-गा-मा! इसी पर पहली बार सोनू निगम को सुना-देखा। लाखों देशवासियों की तरह उनके ज़बर्दस्त प्रशंसकों में एक नाम हमारा भी जुड़ गया। छोटा-मोटा क्रश भी कह सकते हैं। आज तक इतना तो तय है कि सोनू निगम, अमिताभ बच्चन, जगजीत सिंह, सचिन की बुराई का मतलब कि आप हमारी नज़रों में उसी वक़्त गिरकर हमारी डायरेक्ट घृणा के पात्र बन चुके हैं।
फ़िलहाल सोनू की बात करते हैं..... तो 'कल हो न हो', 'पंछी नदिया, पवन के झोंके' के बाद तो फिर किसी और को सुनने का मन ही नहीं करता था। 'दीवाना', 'जान' एल्बम दो-तीन हज़ार बार तो सुने ही होंगे मैंनें। 'अब मुझे रात-दिन तुम्हारा ही ख़्याल है' सुनकर भला कौन न दीवाना हो जाता!

आज सोनू निगम के एक tweet को पढ़कर गुस्से से कहीं अधिक दुःख हुआ। अभी भी लग रहा कि शायद किसी ने उनका अकाउंट हैक किया होगा! अगर नहीं किया है तो बताओ सोनू......
* चिड़ियों की चहचहाहट और मुर्गे की बाँग से सुबह संगीतमय नहीं लगती क्या? कि उन्हें भी चुप रहने को कहें?
* मस्ज़िद की अजान हो या मंदिर, गुरूद्वारे, किसी भी धार्मिक स्थल के घंटे की आवाज....ये ध्वनियाँ सुबह में पवित्रता नहीं घोलतीं?

अरे, दूधवाले की साइकिल की घंटी, बरामदे में गिरा अख़बार, सड़क पर मॉर्निग-वॉक को जाते लोगों की चहलक़दमी, दुकानों के खुलते शटर ये सब और न जाने ऐसे कितने ही पल हमारी-आपकी सुबह को ख़ुशनसीबी से भर देते हैं। इनसे मन उल्लसित होता है और रोज एक नई
रौशनी का आगाज़ भी।
इनसे शिकायतें तो हरगिज़ नहीं हो सकतीं, बल्कि हमें इन पलों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि सुबह की पहली चाय की, पहली चुस्की में जो मिठास है वो इन्हीं की उपस्थिति घोलती है।
वरना बंद खिड़कियों और चलते ए.सी. के बाद तो हवाओं की भी ज़ुर्रत कहाँ जो किसी की नींद में खलल डाल सके!

*हाँ, इस बात में कोई दो राय नहीं कि ईश्वर तक अपनी बात/ प्रार्थना पहुँचाने के लिए लाउडस्पीकर की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि वो अगर है तो हर जगह मौजूद है। सर्वदृष्टा है। हमारे, आपके भीतर ही है। लेकिन फिर तो ये बात बहुत बड़ी बहस में बदल जाने वाली है क्योंकि हम बैंड-बाजों के देश में रहते हैं। लाउडस्पीकर को लेकर ही कई और विषय उठेंगे। यहाँ बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक, हर कार्यक्रम में बिना शोरोगुल के बात हमें हजम ही कहाँ हो पाती है। जब तक सड़क पर नागिन-डांस न हुआ, कोई बियाह ही नहीं पूरा होता! सारे उत्सव धड़ाम-धुड़ूम करके ही मनाये जाते हैं। मैच जीते तो जुलूस, मिस यूनिवर्स बने तो आतिशबाजी, चुनाव जीते तो उम्मीदवार को 21 तोपों की सलामी, कोई विदेश से लौटकर आया तो ढोल नगाड़े ढमाढम बजते हैं। रतजगा होता है, गरबा चलता है, dj वाले बाबू गाने चलाते हैं।
अब हर मौके पर चुपचाप बैठकर तो सेलिब्रेशन होने से रहा! कहने का मतलब ये है कि जब कुतर्क की लाइन लगेगी तो ध्वनि के साथ, वायु प्रदूषण को भी लपेटे में लेकर माहौल को और प्रदूषित ही करेगी। 
- प्रीति 'अज्ञात'
17 April'2017      11.33pm

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

पूर्णा.... A COMPLETE FILM!


'पूर्णा' छोटे गाँव के बड़े हौसलों को सलाम करती, ईमानदारी से बनाई गई एक अत्यंत ही ख़ूबसूरत फिल्म है जो सच्चाई को बिना किसी तड़के के परदे पर सलीक़े से उतारने में पूरी तरह सफ़ल रही है। दो चचेरी बहनों की दिल को छू लेने वाली दोस्ती, परस्पर स्नेह और उनकी संवेदनशीलता  भीतर तक झकझोर के रख देती है। यहाँ दर्शकों की आँखें यह देख हैराँ भी होती हैं कि एक टूटता हुआ इंसान कैसे किसी को ज़बरदस्त हौसला दे सकता है! पर जब दिल साफ़ हो तो क्या नहीं हो सकता! आज जबकि इंसान एक-दूसरे को काटने और जलने-भुनने में व्यस्त है, ऐसे में स्वयं के हारते हुए किसी की आँखों में जीत का स्वप्न थमा जाना; उम्मीद की जानदार मरहम का काम करता है। दोनों युवा कलाकारों के अभिनय की निश्छलता देखते ही बनती है।

यह फिल्म एक छोटी लड़की द्वारा माउंट एवरेस्ट को फ़तह कर लेने की ही कहानी नहीं बल्कि इसके साथ-साथ यह कम उम्र में विवाह और उसके दुष्परिणामों को गंभीरता से सामने भी रखती है। यह स्कूलों और संस्थाओं में चल रही धाँधली, कागज़ी रिपोर्टों और मिड-डे मील की असलियत पर तीख़ा प्रहार करने से भी नहीं चूकती। निर्देशन इतना बेहतरीन है कि रोचकता एक पल को भी कम नहीं होती और अंत तक आप अपनी सीट से बँधे रहते हैं। 'पूर्णा' में जहाँ एक पिता के, समाज के नियमों के बीच रहने और बँधे होने की बेबसी भावुक कर देती है। वहीँ उसका अपनी बेटी के प्रति अगाध स्नेह और दृढ़ विश्वास दर्शकों को तालियाँ पीटने पर मजबूर कर देता है।

यह फिल्म इस सोच को भी पुख़्ता करती चलती है कि एक उत्कृष्ट फिल्म बनाने के लिए बड़े सितारों और नामों की नहीं बल्कि अच्छी स्क्रिप्ट, उम्दा अभिनय और समर्पित निर्देशन की आवश्यकता होती है। राहुल बोस की उपस्थिति और सहज अभिनय कौशल के तो हम सभी कायल हैं पर कभी-कभी अफ़सोस भी होता है कि खानों और घरानों की भीड़ में राहुल बोस, मनोज बाजपेई, इरफ़ान ख़ान और नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी जैसे बेहतरीन कलाकारों को उनके हिस्से की उतनी ज़मीं नहीं मिलती जिसके ये सदैव हक़दार रहे हैं। ख़ैर, हीरा कहीं भी रहे...इससे उसकी श्रेष्ठता पर असर नहीं पड़ता।
बहरहाल, राहुल बोस और पूर्णा की टीम को इस फिल्म के लिए हार्दिक बधाई और इसी ज़ज़्बे के साथ जुटे रहने के लिए अशेष शुभकामनाएँ! 
फिल्म की tagline से सहमत हूँ.....YES, COURAGE HAS NO LIMIT! :) 
- प्रीति 'अज्ञात'


बुधवार, 5 अप्रैल 2017

ऐसी लागी लगन....


मैं बहुत ज्यादा धार्मिक नहीं हूँ पर नास्तिक भी नहीं। मुझे लगता है कि कोई तो ऐसा हो जिसके सामने अपने दुखड़े रोये जाएँ, कुछ अच्छा होने पर उसे 'थैंक्स' कहा जाए, अपने सुख की बातें बतलाई जाएँ, जमाने भर की शिकायतों का पुलिंदा उसके सिर पर रख उससे सवाल किए जाएँ और फिर लोगों को सुधारने का अल्टीमेटम एक डेडलाइन के साथ दिया जाए! बदले में न तो डाँट मिलने का डर हो और न पकाऊ बोरिंग प्रवचन सुनने का ख़तरा (पर आपको ये ख़तरा अब तक इस पोस्ट के माध्यम से बना हुआ है,:D खी-खी-खी)। इसके लिए 'ईश्वर' से बेहतर दोस्त और कोई नहीं! सो, उनसे सुबह पांच मिनट(अधिकतम) अगरबत्ती, दिया-बाती की हेल्लो, हाय हो जाती है। सभी धर्मों के ईश्वर की उपस्थिति और धार्मिक ग्रन्थ भी हैं। कुछ पढ़े, कुछ शेष हैं। बाक़ी तो मैं आपकी ही तरह अच्छे कर्म पर ही विश्वास करती हूँ। :)

एक बात है लेकिन, यदि आपके मन का मैल नहीं गया और आपके ह्रदय में किसी के प्रति दुर्भावना, ईर्ष्या या बदला लेने का भाव है या फिर आप स्वयं को लेकर ही किसी हीन भावना से ग्रस्त हैं तो सारे दिन धार्मिक स्थलों पर अपनी धार्मिकता का प्रचंड प्रचार करने के बाद भी आप ईश्वर के सबसे बड़े विरोधी/दुश्मन ही कहलायेंगे क्योंकि आपने उसके दिए हुए संदेशों को अब तक समझा ही नहीं! आस्तिक बनना है तो दिल से बनना चाहिए, है न ? So, Get up & Dance! 珞

मेरे नानाजी बहुत पूजा-पाठ किया करते थे और मैं उनकी सबसे बड़ी fan भी थी। स्वाभाविक था, उनकी संगत का असर भी मुझ पर ख़ूब पड़ा था। उन दिनों घर के मंदिर को भगवान की तस्वीरों (कैलेंडर से काटकर) से सजाया करती। मूर्तियाँ तो वहाँ पहले से ही थीं। सभी भगवानों की आरती, स्त्रोत भी ढूँढकर रख लिया करती थी। इसका धार्मिकता से कहीं ज्यादा, सीखने से लेना-देना था कि 樂हरेक भगवान की इश्टोरी पता तो चले। स्कूल के दिनों में ही क़िताबें पढ़-पढ़कर palmistry भी सीख ली थी, जो कि समय की लक़ीरों के गहराते-गहराते धुंधली पड़ती गई। अब सिर्फ़ जीवन रेखा, ह्रदय रेखा और मस्तिष्क रेखा की पहचान भर शेष है। 'व्रत' से मुझे कोई परेशानी तब तक नहीं, जब तक दूसरे उसे कर रहे हों। अब भगवान ने उनको यह शक्ति दी है तो हम का  करें? हमसे तो नहीं रहा जाता जी! वैसे पूरा दिन घर या बगीचे का काम करते हुए कब दो कप चाय के साथ ही पूरा दिन गुज़र जाए,पता नहीं चलता पर जो 'व्रत' की बात आई तो बस, केस बिगड़ा ही समझो! पाचन तंत्र के सारे अंग जन्मों के भुक्खड़ टाइप बनकर 'सामग्री भेजो बेन' की गुहार करने लगते हैं और हमसे उनकी ये बेचैनी देखी ही नहीं जाती सो तुरंत फ़ूड सप्लाई प्रारम्भ कर देते हैं।

वैसे जब ये पोस्ट लिखने बैठी थी तो अनूप जलोटा जी का नाम ज़ेहन में था। उनके गाये दो भजन 'जग में सुन्दर हैं दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम' और 'ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन' मेरे all time favourite हैं और अनूप जी को भजन के अलावा और कुछ गाते देखना ठीक वैसा ही लगता है जैसा कि  सोनू निगम का एक्टर बनना लगा था। कुछ लोग दिल में जिस तरह बैठे हुए हैं, उम्र-भर वैसे ही सुहाते हैं। और हाँ, इन दोनों ही गायकों का जवाब नहीं! देने की कोशिश भी न कीजियेगा! 
-प्रीति 'अज्ञात'