शनिवार, 12 अगस्त 2017

साँसों का किराया जो लगता है!

ख़बरों में पूरा क़ब्रिस्तान है....घर के एक कोने में निढाल, बेसुध पिता और आँसुओं की नदी में डूबती माँ....जिनके लिए अब भी इस सत्य को स्वीकारना संभव नहीं लगता। एक पल को भी साँस अटकती है तो कितनी घबराहट होती है, बुरी तरह छटपटाने लगता है इंसान। उन मासूमों पर न जाने क्या बीती होगी, सोचकर भी रूह काँप जाती है।
तमाम चीखों- चिल्लाहटों, माथा पटकते, छाती पीटते आक्रोश के बदले, इस बार भी वही कोरे आश्वासन और उच्च स्तरीय जांच के वायदे की बंधी-बंधाई पोटली उछाल दी गई है।
वो सपने जो आँखों में कबसे झूल रहे थे.....कभी न सच होंगे। हवाओं का किराया जो लगता है!
मायूस है उम्मीदों का बेबस आसमां.....आज भी सिर झुकाए, मौन, नि:शब्द!
कुछ भी तो नहीं बदला... राजनीति भी हर बार की तरह जारी है....
दोषारोपण का ठीकरा एक-दूसरे पर फेंकने का खेल भी वही पुराना .... जो अपने आँगन की किलकारी ही खो बैठा, उसे इन सबसे अब क्या मिलेगा?- प्रीति 'अज्ञात'

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