मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

हम चाँद को छूने में खजूर पे हैं लटके

यदि आप सच्चे भारतीय रहे हैं और दूरदर्शन युग में जन्मे हैं तो उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साब का वह विज्ञापन अभी तक न भूले होंगें जिसमें वे एक बच्चे के साथ तबला बजाते हुए उसे "वाह! उस्ताद" कहते हैं और बच्चा हँसते हुए ज़वाब देता है "अजी, हुज़ूर वाह ताज़ बोलिए"
ज़ाकिर साब के हाथ में ताज़ चाय का कप और बैकड्रॉप में ताज़महल, किसी रोमांटिक फ़िल्म के ख़ूबसूरत दृश्य सा उभरता था। कितने जवाँ दिल तो ज़ाकिर साब के घुँघराले, लहराते बाल और तबले की थाप पर फ़िदा होकर चाय पीने लगे थे...इश्क़ में पड़े सो अलग!

ये ताज़ है साहब! दुनिया जितना भारत को जानती है उतना ही 'ताज' को भी! ताजमहल किसी पहचान या कृपा का मोहताज़ नहीं है। कितने ही प्रेमी और वैवाहिक जोड़े इसी ताज़ के आगे साथ जीने-मरने की क़समें खाते हैं। कितनी ही आँखों में इसकी चमक मुहब्बत की रोशनियाँ बिखेरती हैं। कितनी धड़कनें इसकी दूधिया रौशनी में जवाँ होती हैं। कितनी यादें इसके परिसर की हरियाली में महक भरतीं हैं। प्रेम की निशानी बनी, चाँदनी बिखेरती ये इमारत हम भारतवासियों की आँखों ही नहीं, दिल में भी बसती है। 

देश से बाहर जाते हैं तो विदेशियों से परिचय के बीच में 'ताज़' ख़ुद-ब-ख़ुद चला आता है, जब वो कहते हैं "ओह इंडिया, नमस्ते। वी नो योर ताजमहल, इट्स ब्यूटीफुल!" तो न सिर्फ़ हमारा सीना गर्व से चौड़ा जाता है बल्कि चेहरे की चमक भी किसी ताज़ से कम नहीं होती।
जो टूरिस्ट, भारत आते हैं उनकी सूची में पहला स्थान ताज़ ही लेता है।ताज़ ने कितनों को रोज़गार दिया। कितने फोटोग्राफरों ने जीवन इसी के प्रांगण में गुज़ारा। उनकी रोजी रोटी और करोड़ों देशवासियों की सबसे सुन्दर स्मृतियाँ यहीं से होकर गुजरती हैं।

आख़िर इतिहास से छेड़छाड़ करने से वर्तमान को क्या लाभ मिलता है?
यूँ भी इतिहास कुरेदने पर आएँगे तो कुछ भी शेष न रहेगा। ये सारी मीनारें, किले, इमारतें सब युद्धरत राजाओं की ही देन हैं। एक ने बनाया, दूसरे ने कब्ज़ा किया, तीसरे ने छीना.... इस बीच कितनी लाशें गिरीं और किस-किसकी....उन्होंने भी इस angle से हिसाब न लगाया होगा जैसे आजकल बहीखाते खोले जा रहे। 
कहने का तात्पर्य यही है कि जब भी कोई इमारत मुद्दा बनी...... बिखरा देश ही है....नुक़सान हमारा ही हुआ और इस सबका हासिल कुछ नहीं! 
इनसे भी जरुरी कई विषय हैं जिन पर चर्चा की आवश्यकता देशहित होगी।

बाबरी से निकले अब ताज़ में हैं अटके
हम चाँद को छूने में खजूर पे हैं लटके 

ग़ज़ब की हैं दलीलें, सोच क्या कमाल है 
कहा था न मियाँ, ये साल बेमिसाल है 
आओ झुकाएँ मस्तक नव दीप अब जलाएं 
जरूरत थी जिनको, सारे वो मुद्दे भटके

खड्डे में कोई गिरता, नाले में बहता जाता 
पेपर में दबा ढक्कन, हर ज़ुल्म सहता जाता 
ये ज़ख्म है मुलायम, चलो मिलके भूल जाएँ 
लगे हैं धीरे-धीरे, पर जोर के हैं झटके 

अशिक्षा से हो लड़ाई, भूखों को मिले रोटी
इंसानियत की हत्या करके न नुचे बोटी 
राहत की चाशनी में कोई ज़हर न मिलाएँ
है इल्तज़ा यही बस, चाहे ये तुमको खटके

हम चाँद को छूने में खजूर पे हैं लटके

वैसे एक मज़ेदार आईडिया भी है - इससे तो अच्छा था कि इसका नाम श्रीमती चमेली देवी स्मृति स्मारक / श्री बनवारीलाल निर्मित स्मारक ही रख दिया होता! क्योंकि ये निवाले निगलने में तो जनता एक्सपर्ट हो चुकी है। :D :D
कोई न...लगे रहो!
- प्रीति 'अज्ञात'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें